हर रोज़ दबता हूँ, हर रोज़ सहता हूँ,
रिश्तों की खातिर — खुद से ही डरता हूँ।
"बड़ों की इज़्ज़त करो", यही रट लगाई,
पर जब इज़्ज़त लौटे ना — तब भी चुप रह जाऊँ भाई?
हर ताना, हर लांछन — हँस के पी गया,
और लोग बोले, "क्या ही शांत जीव है ये!"
शांति नहीं है ये — ये घुटन है अंदर की,
आत्मसम्मान की रोज़ हो रही हत्या, पर खबर किसे है?
दहेज में जब बेटी गई — सब खामोश थे,
उसके आँसू, उसकी चुप्पी — सब बेमोल थे।
"समझौता कर लो, यही संस्कार हैं",
क्यों नहीं कोई बोले — "तेरा सम्मान भी तो एक अधिकार है!"
ऑफिस में बॉस चिल्लाए — काम से नहीं, घमंड से,
और हम सिर झुकाए रहे — नौकरी के डर से।
पर कब तक? कब तक यूँ ही झुकते रहेंगे?
जिस दिन बोल पड़े — उसी दिन ठुकरा दिए जाएंगे!
रिश्तों का मतलब अगर 'तू बस हाँ में हाँ मिला',
तो भाई, वो रिश्ता नहीं — बस एक सौदा था।
जिसमें भावनाएं गिरवी थीं, और आत्मा गिरती गई,
हमारी चुप्पी ने हमारी ही इज़्ज़त छीन ली गई।
अब और नहीं! अब खुद को भूलना नहीं है,
आत्मसम्मान पे, अब कोई सौदा करना नहीं है।
जो साथ दे, उसे सीने से लगाएँगे,
जो रौंदे — उसे सीधा जवाब दिखाएँगे।
इज़्ज़त मांगनी नहीं, बनानी होती है,
और अपनी पहचान — खुद उठानी होती है।
तो बोलो, चलो — अब जुबां खोलो,
भीड़ से हटो — और खुद के लिए डट कर बोलो।