महफ़िल में कभी तेरा ज़िक्र हुआ ही नहीं,
फिर उस पर उठते हुए ये सवाल क्यूं है,
ये मान भी लें कि वह किस्मत में नहीं ,
फिर उसके ये बैचेनी भरे हाल क्यूँ है,
हार गया जब सादगी में सब कुछ,
तो अब ये फिर से फरेबी जाल क्यूँ है ,
बदलते वक्त के साथ भूल जाते हैं सब,
पर बदलते वक्त की ये धीमी चाल क्यूँ है ,
दोनों के बीच है क्या, सिर्फ प्यार ही तो है
उस इक प्यार पर इतनी तकरार क्यूँ है,
गर ये हक़ीक़त नहीं सारे ख़्वाब ही हैं,
तो फिर इन ख़्वाबों पर इतनी रार क्यूँ है।