किसी को कम ना ज्यादा बराबर चाहिए।
भौतिकवादी बन गया है आदमी उसको
सबकुछ चाहिए।
कौन कितना काबिल है ये वही जानता है!
फिरभी कबलियत से ज्यादा क्यूं मांगता है?
दफ्तरों में वर्किंग आवर्स से ज्यादा काम तो छोड़ो, समय से दफ़्तर भी आ जाता तो हांफने लगता है।
जब बात मांगने अधिकारों की आती है तो
चीखने चिल्लाने मानवता की दुहाई देने लगता है कि...
सरकारों ने ये नही दिया
ये नहीं किया..
हमारी सरकारें तो सुनती नहीं..
हमारे लिए हसीन सपने बुनती नहीं..
ट्विटर से लेकर इनस्टा तक कोहराम मच जाता है।
अरे मूर्खों क्या तुम्हें पता है कि
कितने दिनों की मेहनत..
कईं कईं अर्थशास्त्रियों जिरह के बाद
कहीं जाकर ये बजट तैयार होता है
और नकारा आलसी लोगों को ये बेकार लगता है।
है तुममें योग्यता तो नौकर नहीं
मालिक बनों।
नौकरी ढूंढों नहीं सृजित करो।
और खुद के भविष्य के मालिक बनो।
यूं हारे हुए कायर सिपाही की तरह
जंग को बेकार ना बोलो।
तुम फतह करने वालों में से हो
तुम जीवन को जंग को जीत लो
तुम जीवन के मीत हो..
तुम्हीं जीवन प्रतीक हो...
तुम्हीं नीति निर्देशक
तुम्हीं शासक
तुम्हीं पालक
तो ये कैसी लालच लोलुपता है..
क्या करना है क्या ना करना है..
किसे देना है कितना देना है..ये ..
सरकारों को सब पता है...
सरकारों को सब पता है...

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




