मैंने देखा एक टिटहरी,
चौकन्नी और फुर्तीली..
खूब उड़ती, खूब बोलती
आसमां में खूब उड़ने का चाव..
उसकी सारी ज़मीं अपनी..
अपना सारा आसमान..
वहीं पुरानी तान उसकी
वहीं पुराना गान..
कंटीली तारो पर भी
उछल–कूद भरपूर
ना वो मंज़िल दूर थी
ना ये ठिकाना दूर..
मन था उसका भोलाभाला
हुलक हुलक उठती हूक..
इस ज़मीं पर जीमना
उस ज़मीं की भूख..
अनायास ही गरजने लगे
दुश्मनी के हथियार
बारूद की गंध फैल गई
सब बदल गया व्यवहार..।
उसको घेर लिया अज़ीब
आशंकाओं ने..
और दिल बैठा दिया नित
नई अफवाओं ने..।
उसको चाहिए खुली हवा
और फैला आसमां
बंद करो अब तो बदले की आग
और नफरतों का धुंआ..।
इतनी उसकी इल्तिज़ा है
इतना उसका अरमान..
ना तुम खुदा बनो ना बनो भगवान
हो सके तो बन जाओ सच में
एक इन्सान..।
पवन कुमार "क्षितिज"