चिलचिलाती धूप
छत की मुंडेर पर हाँफता एक पक्षी
पानी की आस में
आस पास देखता है
पर नहीं ढूंढ पाता
दूर दूर तक, पानी न छाँव।
गांव की पोखर सूख गई है
पड़ोस की नीम और पाकड़ भी कट गई है
दूर पर एक बाग था
उसका भी अब पता नहीं हैं
जीवन अब कश्मकश में हैं
आगे क्या होगा कुछ पता नहीं है ।
पंडित चाची के आँगन में
मिट्टी के बर्तन में पानी रहता था
खानें को दाना भी मिलता था
शायद वो अब चल बसी हैं
उनकी नई पीढ़ी को वो सब कोतुहल लगता है
उनके लिए घड़ियाली आंसू तो बहाते हैं
पर उनकी संवेदनाओं का इनको कुछ सिला नहीं है
स्वयं को तो जुटा लिए ढेर संसाधन
पर हमारे लिए कुछ बचा नहीं है।
पेड़ काट काट कर,
अपने साधन जुटाये हैं
तालाबों को पाटकर
इन्होंने खेत बनाये हैं
घोंसला रखने की भी जगह,
अब मुश्किल से मिलती है
ज़िंदगी कितनी दूभर हो गई हैं
ये हमारी घटती संख्या से पता चलती है।
जीवन आशा पर चलता है,
हम भी आशा में जी रहे हैं
मनुष्य हमें क्या क्या करता है
क्या लौटा पायेगा वो हमारा हरित संसार
जिसमें हमारा कुनबा पलता है
जिसमें हमारा कुनबा पलता है।