कुछ तो है इस संसार में
जो पाँवों से बंधा अदृश्य धागा है,
भागना चाहो तो खींच लेता है,
छोड़ना चाहो तो कसकर जकड़ लेता है…
तुम तो पहले ऐसे न थे
कि हर जन्म की स्मृति बन जाओ,
कभी ऋतु-चक्र में फूल बनकर
कभी पतझड़ की खाली डाल बनकर आओ…
कभी भूख से व्याकुल बच्चे की आँखों में,
कभी वृद्ध की थकी साँसों में,
कभी प्रेमिका की प्रतीक्षा में,
कभी साधक की समाधि में…
तुम हर जगह हो —
फिर भी ओझल,
तुम शून्य हो —
फिर भी सम्पूर्ण।
मैं सोचती हूँ —
संसार छलावा है,
पर उसी छलावे में कहीं
एक अदृश्य सत्य भी चमकता है;
मैं सोचती हूँ —
मोह बेड़ियाँ है,
पर उसी बेड़ी में
मुक्ति की सीढ़ियाँ भी छुपी हैं।
तुम तो पहले ऐसे न थे
कि हर पीड़ा में अमृत घोल दो,
हर वियोग में मिलन का आभास कराओ,
हर मृत्यु में जीवन की झलक दिखाओ।
सुनो!
कभी गीता के श्लोकों में मिलो,
कभी उपनिषदों की गूंज में,
कभी मंदिर की आरती में,
कभी किसी अनपढ़ की मासूम दुआ में…
कुछ तो है इस संसार में —
जिसे नाम दो तो “प्रेम” है,
जिसे रूप दो तो “ईश्वर” है,
जिसे सत्य कहो तो “आत्मा” है,
जिसे स्वीकारो तो “मुक्ति” है।
और इसी रहस्य की डोर में
हम सब बंधे हैं…
छूट भी नहीं सकते,
भाग भी नहीं सकते…