वो मिला तो सही, मगर पहले सा ज़ज़्बा न था..
नाम की मुहब्बत थी, मुहब्बत का ख़ुदा न था..।
वो ढूंढ़ लाए कहीं से, मेरे गुज़रे दिनों की दास्तां..
सुलग रहा था किस्सा कोई, सब कुछ बुझा न था..।
हैराँ है कश्तियाँ भी, लहरों का मिज़ाज़ देखकर..
पहले तो बेवज़ह, समन्दर में यूं तूफ़ाँ उठा न था..।
बाज़ारों का रिवाज़, समझना भी कुछ आसाँ नहीं..
मुहब्बत की हाट पर, वफ़ा का सामाँ बिका न था..।
ज़माना तो हम पर, इल्ज़ाम लगाए जाता है मगर..
मयखाने में कभी "क्षितिज" का कदम बहका न था..।
पवन कुमार"क्षितिज"