ज़ुबाँ पे 'देश प्रेम' है, दिल में क़ुर्सी का ख़ुमार, ये नेता नहीं, बस अगले चुनाव का इश्तहार है।
हमारा ज़मीर भी क़ीमती है, बस भाव रोज़ बदलते हैं, ये ईमानदारी की बातें अब सरकारी दफ़्तरों में नहीं चलती हैं।
वो झोली हिलाकर ग़रीबी का नाटक करते हैं मंचों पर, असल में ग़रीब तो वो है जो इनके भाषणों पे यक़ीन करे।
फ़िलमों में न्याय है, अदालत में तारीख़ों का जाम, यहाँ सज़ा उसे मिलती है जो बे-बस है, जो अमीर नहीं।
ये सेलिब्रिटी नहीं, ख़ाली तिजोरियों के शौक़ीन हैं, कैमरे पे ज्ञान देते हैं और अँधेरे में क़ानून तोड़ते हैं।
वोटों की खेती में विचारधारा कहाँ बचती है साहेब? यहाँ हर फ़लसफ़ा बस एक जाति का नारा है।
अमीर के बच्चे ने देश छोड़ा, वो क़िस्मत का मारा है, ग़रीब ने सड़क छोड़ी, उसे अतिक्रमण बताया गया है।
फ़ैसला जो रिश्वत से लिखा जाए, वो क़ानून कैसे हो? यहाँ इंसाफ़ के चेहरे पे भी मालदार का चेहरा लगा है।
प्रशासन है या कागज़ का मकड़ी जाल, जो वक़्त खाता है, फ़ाइल को आगे बढ़ाना नहीं, बस चाय पे समय गँवाना है।
वो ग्लैमर की चमक है, जो असली कला को खा गई, नक़ली दर्द बेचकर उन्होंने अवाम को बहला दिया है।
सोने की थाली में देश प्रेम परोसते हैं धनवान, मगर टैक्स की बारी आए तो विदेशों में पता बदल लेते हैं।
हर काम के लिए रिश्वत नहीं, बस फ़ोन की सिफ़ारिश चाहिए, अब अफ़सरशाही में ईमान नहीं, सिर्फ़ ऊपर की फ़रमाइश चाहिए।
पर्दे पे सादगी है, असल में ऐश की इमारत है, ये तारे नहीं, बस चंदे से बनी हुई खोखली शौहरत है।
विचारधारा कोई भी हो, मंज़िल तो एक ही है साहिब, जनता को लड़ाओ, और ख़ज़ाना अकेले भर लो।
ज़रा देर से पहुँचने पे माफ़ी नहीं होगी बाज़ार में, मगर सरकारी योजना दस साल से लेट है, ख़ैर है।
- ललित दाधीच

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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