कुछ हमारी भूलें थीं, कुछ ज़िंदगी की गफलतें..
बेहिसाब नफरतें थी, बड़े हिसाब की मोहब्बतें..।
हर–एक दिन गुज़रा, सख़्त इम्तिहान के दौर से..
दरख़्वास्त कहीं मंज़ूर नहीं, बस आंसू ही सहूलियतें..।
वो तो लिखते थे, हर बात का हिसाब बहियों में..
तभी हम बतला ना सके, अपनी कोई ज़रूरतें..।
मालूम नहीं ये किसकी, दुआओं का असर था..
खुशियां कोने में रोती रहीं, ग़मों की थी बरकतें..।
मेरे हिस्से की चीज थी, ये उसूल और ये पाबंदियां..
बस आंखों में आंसुओं संग, झिलमिलाती रही हसरतें..।
-पवन कुमार "क्षितिज"