ज़ुबाँ पर सच नहीं, फ़िल्टर लगा है हर आवाज़ पर, ये तकनीक थी जो आई, मगर तन्हाई बढ़ती चली गई।
अदालतों में तर्क से नहीं, शोर से इंसाफ़ होता है, रहम नहीं, फ़ोन की रोशनी ही अंधेरा करती चली गई।
मोहब्बत भी थी, मगर अगले पल की चिंता थी ज़्यादा, वो रिश्ते जो टूट गए, उनकी क़ीमत आज बढ़ती चली गई।
गरीब के हक में बातें तो फ़ौरन शेयर हो गईं हज़ार, पर वहशत है, सच्ची मदद की तस्वीर मरती चली गई।
ज़मीन की हद पे लड़ते रहे सदियों से इंसान, और तमाम उम्र कमरे की चार दीवारी घटती चली गई।
मैंने ज्ञान को तेज़ी से उम्र में बुज़ुर्ग होते देखा है, ख़ुद को सही साबित करने की ज़िद में, समझ घटती चली गई।
ये अफ़सोस है कि आख़िरी सच ख़ुद में ही तन्हा था, ख़ुद से ही बात नहीं की, और वो आवाज़ दबती चली गई।
दुनिया जीतने का वहम था, ये अहसास मरने पे हुआ, अरे जीत वो थी जो पलकों में थी, और वो नींद झपकती चली गई।
फ़ित्ना बाहर नहीं था, ख़ुद की नज़र में छुपा था हमेशा, मैं तमाम उम्र भागता रहा, अंदर से ज़िंदगी खिसकती चली गई।
- ललित दाधीच

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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