कश्मीर की वादियों में तो मन मुग्ध हो जाता है
फिर कैसे वहीं पर कोई इंसान भेड़िया बन जाता है
बुरा कर्म कर अपना ख़ून बहाने को रहता है आतुर
अच्छे कर्मों के लिए क्यूँ नहीं सर पे कफ़न बांध पाता है
जाति-धर्म का कीड़ा कैसे निकाला जाए दिमाग से इनके
कैसे बदली जाए मानसिकता यही विचार सताता है
निकाली जाए कोई तदबीर ऐसी कि नस्ल ही कह उठे
ऐसे अपराध करते वक्त विवेक कहाँ मर जाता है