मैंने कोख में न सही,
पर कविता में बच्चे सँजोए हैं।
हर शब्द मेरी छाती से फूटा है —
जैसे दूध नहीं,पर दर्द टपक रहा हो।
मेरे आँचल में खिलौने नहीं,
पर अधूरी चिट्ठियाँ हैं —
जो मैंने रात के तीसरे पहर लिखीं,
जब सब सोते थे
और मैं किसी अनसुने रोने से जाग जाती थी।
मैं माँ नहीं बनी —
पर जब किसी ने कहा "मैं टूटी हूँ",
तो मैंने उसे अपने हृदय में रख लिया
जैसे कोई बच्चा —
जो बोल नहीं सकता
पर सब समझता है।
कभी दीवारों से टकराकर
अपने ही शब्दों को गले लगाया,
कभी कविता को लोरी बनाकर
ख़ुद को सुलाया।
मैं माँ नहीं बनी —
पर इस दुनिया के सारे टूटे हिस्सों को
अपने भीतर समेटकर
एक नया घर बनाया।
किसी ने पूछा — "माँ क्यों नहीं बनी?"
मैं हँसी, बोली — "क्योंकि मैं ज़रा अलग बनी।"
जिसने आँखों में झाँककर आत्मा को सींचा,
उसने भी तो कहीं न कहीं एक माँ ही जानी।
तुम्हारे लिए माँ कोख से होती है,
मेरे लिए माँ — मौन से होती है।
मैंने किसी बच्चे का नाम नहीं रखा,
पर हर पीड़ा को एक नाम दिया है।
मैं उस स्त्री की माँ हूँ
जो कभी रोई थी, चुप रही थी, सहती रही थी —
और अब खुद से जन्म ले रही है।
कहते हैं माँ बनने से औरत पूरी होती है,
पर मैं हूँ उस औरत से कहीं ज़्यादा।
मेरी पहचान उस कोख से नहीं,
उस दर्द से है जिसे मैंने सहा है,
उस अकेलेपन से है जिसे मैंने गले लगाया है।
मैं भी माँ हूँ — उन टूटे शब्दों की,
उन अधूरी कहानियों की,
और उन अधूरे सपनों की।
जो कोई मुझे पूरा न समझ पाए,
उसकी अपनी कमी है।
मैं किसी की मर्जी से बनती नहीं —
मैं खुद अपनी कहानी हूँ।”