हर इल्ज़ाम पे सफ़ाई दूँ — इतना वक़्त नहीं,
हर सवाल का जवाब बनूँ — इतनी ज़रूरत नहीं।
जो दिल से जानता है, वो खामोशी में पढ़ लेता है,
जो नहीं समझना चाहता — उसे मतलब से फ़र्क़ नहीं।
मैं इंसान हूँ — हर ग़लतफ़हमी का डिटर्जेंट नहीं,
मैं सच्चाई हूँ — दिखाने के लिए प्रमाणपत्र नहीं।
जो रहा साथ, उसे सफ़ाई की दरकार नहीं,
और जो चला गया — वो लौटे, इसकी आस भी
अब अपने हिस्से की थकान लिए
मैं उत्तरों की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ती।
जो सच में साथ था,
वो मेरी चुप्पी में भी थामे रहा —
बाक़ी तो बस शोर में गुम रिश्ते थे।
अब शिकायतें नहीं करती —
क्योंकि जिन्हें निभाना होता है,
वो तर्क नहीं पूछते।
मैं अब पन्नों में नहीं,
अपने भीतर दर्ज हो चुकी हूँ।
जहाँ सफ़ाई की जगह नहीं,
और स्पष्टीकरण की ज़रूरत नहीं।
जो ग़लत समझे —
उसे समझाने की जिम्मेदारी मैंने अब छोड़ दी है।
अब कोई भ्रम बना ले,
तो मैं उसमें अपना नाम जोड़ती नहीं।
अब जो कहना है,
वो सिर्फ मौन कहता है —
और जो सुनना चाहता है,
वो बिना कहे सुन लेता है।
सत्य को अब गवाही की ज़रूरत नहीं,
और प्रेम को सबूत की आदत नहीं।
मैं अब सिर्फ हूँ —
बिना बहस, बिना डर, बिना सफ़ाई।
अब मैं वही रह गई हूँ —
जो रह जाती है,
जब सारी परिभाषाएँ ख़ुद से हार जाती हैं।