नारी थी पर नारी जैसी नहीं,
शौर्य गाथा थी, कोई कहानी नहीं।
बचपन से ही स्वाभिमानी थी,
संघर्षों की वह अभ्यस्त रानी थी।
ना था सपना महलों का सुख,
ना थी अभिलाषा रूप श्रृंगार की।
चाह थी भी मातृभूमि की रक्षा की,
जननी पर किया न्यौछावर प्राण।
झाँसी की धरती ने पुकारा,
तो नारी ने सिंहनाद विचारा।
पुत्र को पीठ से बाँध वह चली,
रणभूमि में बिजली बन डटी ।
“मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी”,
ये ललकार नहीं, प्रतिज्ञा थी।
हर नारी की छुपी शक्ति का,
उद्घोषित सा एक विचार थी।
घोड़े पर वह आंधी बन दौड़ी,
तलवार संग बिजली सी झोंकी।
रक्त गिरा पर शीश न झुका,
वीरता का दीपक अमर जला।
आज भी गूंजता है उसका नाम,
रानी लक्ष्मीबाई — भारत की शान।
नारी क्या कर सकती है, सुनो,
हर दिल में बसी है उसकी गाथा।