राजदुलारे ,सन्मित प्यारे,
बार-बार शीश झुकांऊ मैं।
सुने है नहीं कोई,
किस-किस द्वार जाऊं मैं।
भूल के तुम्हें,
कष्ट ही कष्ट उठाए हैं।
और न जाने,
कितने पाप कमाऐ हैं।
न कर पाऊं याद,
अनगिनत संमाये हैं।
दुख होता है ,
पछतावा आता है।
अब आपसे,
क्या छुपाऊं मैं।
राजदुलारे----
बार-बार-----
मेरे पाप कर्म,
तुझसे मिलने ना देते हैं।
मिलन चाहूं कितना भी,
घेर मुझे वे लेते हैं।
कैसे तेरे पास आऊं मैं,
कैसे तेरे दर्शन पाऊं मैं।
राजदुलारे---
बार-बार---
भूला भटका में,
अब शरण तिहारी आया हूं।
किरण ज्ञान की,
मिल जाए, जिनवर !फिर आया हूं।
अज्ञान हूं, मूर्ख हूं ऐ!"विख्यात"
दीप प्रज्वलित कैसे करूं मैं।
राजदुलारे--
बार-बार----------