मेरे दिल में, रेल की पटरियां तो नहीं,
फिर भी तुम आ गई, धड़धड़ाती हुई..।
तुम्हारी तेज़ आवाज से मैं, सहम ही गया,
क्यूं नहीं आईं तुम, कोयल सी गाती हुई..।
मेरी आंखों में अंधेरा सा, ही तो छा गया था,
जब तुम चली चाहत का, काला धुआं उड़ाती हुई..।
मैं किस किस बात की, सफाई देता आख़िर,
बात बात पर, हर बात पर सवाल उठाती हुई..।
मेरे दिल के चमन में तो कोमल कलियां है बस,
और तुम चलती हो, राहों पर सितम ढाती हुई..।
मैं तो हूं एक खुली हुई किताब की मानिंद सनम..
तुम क्या अच्छी लगोगी, दिल के राज़ छुपाती हुई..।
पवन कुमार "क्षितिज"