मिलकर दोपहर संध्या से
उस दिन कुछ यूं बोला
काश हमें रुकना होता
कुछ और अधिक क्षण।
आना जाना तो रहता है
यह क्रम है चलता रहता है ,
लेकिन इस पल जाने क्यों
अपनापन सा लगता है ।
तथ्यों में उसने साम्य टटोला
फिर उलझा अपवादों में
नहीं दिखी कुछ मिलन कल्पना
बस अब बाकी सृजन योजना
तभी वायु का युक्ति प्रयोजन
एक कल्पना लाया
उसने कृत्रिम मिलन सा
प्रारूप एक दिखलाया ।
बदली छाई है दोपहर में
संध्या गोधूलि सी दिखती
समय गति में दोनो देखो
मिलते मिलते से लगते।
प्रोफेसर रविंद्र प्रताप सिंह