तू आया था फूलों की तरह,
मगर चुभा हर काँटे सा।
कहा — “तू मेरी रानी है”,
और बना दिया गुलाम सा।
कभी कहा — “तू मेरी पूजा”,
फिर कपड़ों पे उँगली रख दी।
हँसी पर तेरी आँख तरेरी,
और उड़ान पे छत टाँक दी।
तू बोला — “मैं सम्मान दूँगा,”
पर हर निर्णय पे मुहर लगी।
मौन को तूने ‘हाँ’ समझा,
ना की चीखें भी बेअसर लगीं।
मैं चुप थी — तू जीत मान बैठा,
मैं झुकी — तू सिंहासन गिन बैठा।
हर त्याग को अधिकार समझा,
हर आँसू को नाटक की बिसात कह बैठा।
मुझे लगा — तू प्रेम है शायद,
मगर तू तो शिकंजा निकला।
मुझे गढ़ने चला था अपने रंग में,
जैसे मैं कोई अधूरा चित्रांश निकला।
तूने मेरी सीमाएँ तय कीं,
मुझे ही मुझसे दूर किया।
फिर कहा — “देखो,
मैंने कितना प्रेम किया!”
अब सुन —
अगर यही प्रेम है,
तो मैं प्रेम नहीं चाहती।
अब मैं प्रेम हो गई हूँ,
और किसी स्वीकृति की मोहताज नहीं।
अब मैं चुप नहीं,
अब मैं मौन हूँ —
और मेरा मौन
तेरे समस्त उपहास का उत्तर है।