किसी और ही सूरत गुजार, कि दिन कुछ परेशाँ है..
सूरज को सितारों से सँवार, कि दिन कुछ परेशाँ है..।
कि मुश्किलों के इस दौर में, आसाँ कुछ भी नहीं..
है आसमां में गर्दो–गुब्बार, कि दिन कुछ परेशाँ है..।
इस दिल में न जाने कितने, भंवर उठते हैं हर रोज..
कश्तियां दरिया में न उतार, कि दिन कुछ परेशाँ है..।
अब फ़साना बाकी नहीं, ब'अद-ए-शरह-ए-आरज़ू..
हमसे न होगा राजे–इज़हार, कि दिन कुछ परेशाँ है..।
कौन शहंशाह देखे, उजड़े महलों की आब-ओ-ताब..
थाम लो गिरती दरो–दीवार, कि दिन कुछ परेशाँ है..।
पवन कुमार "क्षितिज"