प्रश्न है गहरा
डॉ0 एच सी विपिन कुमार जैन "विख्यात"
तेलंगाना में कट रहा जंगल, चार सौ एकड़ का विस्तार,
पार्क बनेगा, कहते हैं सब, ये कैसा है उपचार?
विकास का ये कैसा पहिया, रौंद रहा हरियाली,
प्रश्न खड़ा है आज बड़ा, ये कैसी है उजाली?
जहाँ विचरते थे हिरण झुंड, कोयल की थी कूक,
साँपों का था डेरा अपना, उल्लू की थी हूक।
तितली, भंवरे, मधुमक्खी, रचते थे मधुशाला,
अब कहाँ जाएँगे ये प्राणी, किसका होगा हवाला?
कानून की दीवारें ऊँचीं, घर में बंद करो,
जंगल काटो, पार्क बनाओ, कैसा ये है शोर?
विकास की ये अंधी दौड़, क्यों नहीं कुछ देखती?
जीवों के घर उजड़ते हैं, क्या पीड़ा नहीं जगती?
ये कैसी तरक्की का सपना, नींव विनाश पर टिकी?
सीमेंट के जंगल खड़े होंगे, साँसें जाएँगी किसकी?
प्रकृति का ये कैसा सौदा, लाभ किसका, हानि किसकी?
प्रश्न ये गहरा होता जाता, उत्तर में है बस चुप्पी।
सोचो जरा उस गिलहरी को, खो देगी जो अपना पेड़,
उस पंछी का क्या होगा, उजड़ेगा जिसका नीड़?
ये मूक प्राणी कहाँ पुकारें, कौन सुनेगा इनकी व्यथा?
विकास का ये कैसा पैमाना, जिसमें नहीं करुणा?
ये विनाश काले विपरीत बुद्धि, फिर से दोहराई जा रही,
हरे भरे जीवन को काटो, कैसी ये नीति भाई?
प्रश्न ये केवल जंगल का नहीं, प्रश्न ये जीवन का है,
विकास की इस अंधी दौड़ में, क्या बचेगा कुछ अपना है?