कुछ अच्छा लिखे जाने का ऋतु
काफ़ी दूर फिसल गया है
अंदर कोई बुजुर्ग हांफ रहा है
एक मुल्क उजड़ गया है
बचे घरों की छतें टपक रही है
मेरी इस अस्थाई झोपड़ी में
हारा कवि मर्तबा ख़ोज रहा है
चिंताए पीठ पर कोड़े लगाए जा रही हैं
रक्त की बूंदें
नसें सींच रही हैं
मैं अपना प्राण भ्रमर ख़ोज रहा हूँ
देखो सारे पीले फूलों के खेत
कैसे लाल पड़ गये हैं
सारे अवसाद झुर्रियों में तब्दील हो चुकें हैं
प्रेम, प्रलय और करवटों का ईंधन खत्म हो चुका है
मैं किसी के अन्तिम कुर्सी पर बैठा हूँ
जवानी के लगाए पेड़
दो बिल्लियाँ
यादों का धुंधलापन
और धूल जमी किताबों के सिवा
यहां कोई नहीं है ...
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विक्रम 'एक उद्विग्न'
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The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




