सच्चे माता या पिता की आत्म-संवाद की कविता (जैसे कोई साधक, एकांत में बैठा हो, और अपने ही मन से प्रश्न कर रहा हो…)
“मैं उसे क्यों गढ़ना चाहता हूँ?”
एक दिन चुपचाप बैठा था,
उसके खिलौने इधर-उधर बिखरे थे,
मन ने कहा —
“देखो, कितना अस्त-व्यस्त है!”
फिर भीतर से कोई बोला —
“क्या तुमने उसके मन का सौंदर्य देखा?”
वो हँसा,
मैंने कहा — “धीरे बोलो!”
वो दौड़ा,
मैंने कहा — “गिर जाओगे!”
वो रोया,
मैंने कहा — “मजबूत बनो!”
मैं हर बार उसे रोकता हूँ,
जैसे वो मेरा कोई अधूरा प्रारूप हो,
जिसे मुझे संपूर्ण बनाना है।
पर क्या मैं जानता हूँ —
‘पूर्ण’ क्या होता है?
मैंने उसे अनुशासन सिखाया,
पर संयम नहीं…
मैंने उसे आज्ञा दी,
पर विवेक नहीं…
मैंने कहा — “मुझसे डरो”,
पर ये कभी नहीं कहा —
“अपने अंत:करण से प्रेम करो।”
मैं चाहता हूँ वो बने “श्रेष्ठ”,
जैसे समाज चाहता है,
पर मैं भूल जाता हूँ —
जीवन कोई प्रतियोगिता नहीं,
यह आत्मा की यात्रा है।
और फिर ध्यान में एक मौन उतर आया:
“तू उसे दिशा दे सकता है,
गति नहीं।
तू उसे शब्द सिखा सकता है,
स्वर नहीं।
तू उसे बाँध मत,
प्रार्थना कर — कि वह स्वयं को पा सके।
क्योंकि वह तेरे पास जन्मा है,
तेरे अधीन नहीं।”
क्या वह मेरे स्वप्न का उत्तरदायी है?
मैंने जब उसे पहली बार गोद में उठाया था,
मन में एक स्वप्न था —
“ये मेरी छाया बनेगा…”
लेकिन अब ध्यान में बैठा हूँ,
तो सवाल उगता है —
“क्यों छाया? क्या उसकी अपनी रौशनी नहीं?”
वो चित्र बनाता है,
पर मैं उसमें दिशा खोजता हूँ।
वो कहानियाँ गढ़ता है,
पर मैं उनमें तर्क ढूँढता हूँ।
वो जीता है पल में,
पर मैं उसे भविष्य में खींचता हूँ…
क्यों?
क्या मेरे जीवन की अधूरी इच्छाओं का बोझ
मैं उसके कोमल कंधों पर डाल रहा हूँ?
क्या मैं उसे इसलिए ‘सही’ बनाना चाहता हूँ
क्योंकि मुझे अपने भीतर का ‘गलत’ स्वीकार नहीं?
ध्यान की गहराई में उत्तर फिसफिसाया:
“वह तेरे लिए नहीं आया है…
वह अपने कर्मों, अपनी यात्रा, अपनी समझ के लिए आया है।
तू मार्ग है, मंज़िल नहीं।
तू पालक है, स्वामी नहीं।
उसकी आत्मा भी ईश्वर का अंश है — जैसे तेरी है।”
“तो फिर मेरा कर्तव्य क्या है?”
कर्तव्य है —
जब वो गिरे,
तो तेरा हाथ हो — धक्का नहीं।
कर्तव्य है —
जब वो रोए,
तो तेरा हृदय हो — तर्क नहीं।
कर्तव्य है —
जब वो पूछे —
तो तू मौन से जवाब दे,
शब्दों से नहीं।
कर्तव्य है —
जब वो अपने पंख फैलाए,
तो तू हवा बन — ज़ंजीर नहीं।
अंतिम प्रार्थना:
“हे प्रभु!
जैसे तूने मुझे चलने दिया,
वैसे मैं अपने बच्चे को उड़ने दूँ।
और जब वो मेरे मार्ग से अलग हो जाए,
तब भी मैं उसे प्रेम दे सकूँ —
क्योंकि प्रेम में अधिकार नहीं,
सिर्फ़ समर्पण होता है।”