थी एक अभागिन
कभी थी सुहागन।
पति का अब नही था सिर पर हाथ
पर बच्चो का था हाथो मे हाथ।
पैरो मे पड़े घावो को देखकर भी वो आगे बढती गई
आई कितनी भी रूकावटे वो तो बस चलती गई।
बच्चो मे ही दुनिया अब उसकी थी समाई
सारी जवानी उसने उनके लिए ही गवाँई।
बड़े हो गए अब बच्चे,अब कहाँ माँ की सुनने वाले थे
माँ को बात-बात पर अब वो आँखे दिखाने वाले थे।
माँ भी मन ही मन सोच रही क्या यही दिए थे इन्हे संस्कार
यही सोचते हुए एक दिन उसने त्याग दिया संसार।
ना मिल पाएगा माँ जैसा हमे अब प्यार
यही कहकर बच्चे अब रहे थे माँ को पुकार।
-राशिका