मेरे और तुम्हारे बीच स्थित चमकीले तारों जितनी दूरी है।
दोनों की अपनी अपनी मजबूरी है।
फिर मैं क्यों इस आवेगी सोच से सिहर उठता हूँ ?
हम कभी मिलेंगे ही नहीं कह उठता हूँ ?
प्रेम की पराकाष्ठा में खुली आँखों का सपना आया।
तुम वहीं थी मैं भी वहीं था य़ह समझ पाया।
मौका पाकर मैंने तुम्हारी थकी आँखों पर होंठ रख दिए।
तुम्हारी रोजमर्रा की ज़िंदगी पर फिर हँस दिए।
कैसे तुम मेरे साथ हर सपने को जी लेती हो।
और अनायास ही मेरी आँखो से सो लेती हो।
चाहत कब किस इंसान की पूरी हुई !
होंगे कितने निर्मम सपने जिनमें तुम नही.. अविरल दूरी हुई !!
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद