वो था वक्त अपना, और ये वक्त हैं बड़ा अज़नबी..
दिल में उठे लहर खुशी की, होता ऐसा कभी–कभी..।
किस पर मैं करूं यकीं, सब चहरों पर लगे मुखौटे..
जाने कितने अरमानों की, सांसे रह गई दबी–दबी..।
बाजारों का हिसाब वही, तराज़ू वही और तौल वही..
जितना धोखा उतनी ज्यादा, हाट वही है सजी–सजी..।
मेरी शक्ल को देख आईना, सदमे से जो ना निकला..
उसका कोई कुसूर नहीं, वो जुदा हुए थे अभी–अभी..।
मैं अपने दिल के फैसलों से, कुछ मुतमइन तो न था..
रात भी कुछ इंतेज़ार में ऊंघती रही बस खड़ी–खड़ी..।
पवन कुमार "क्षितिज"