चल ही रहा हूँ,
कहने को तो,
इस चलने का,
भी क्या कहना,
पाँव चला हूँ,
चार अभी तक।
जी भी रहा हूँ,
कहने को तो,
इस जीने का,
भी क्या कहना,
सांस भी आती हैं,
रुक रूककर।
सोने में कोई,
हरज नहीं है,
ऐसी नींद का,
भी क्या कहना,
स्वप्न जगह हों,
दुःस्वप्न निरंतर।
पढ़ना लिखना,
कब का छूटा,
ऐसी पढ़ाई का,
भी क्या कहना,
काला अक्षर,
भैंस बराबर।
यह सब फिर भी,
बेहतर था।
ठीक ही हूँ मैं,
सबके जैसे,
ऐसे स्वास्थ्य का,
भी क्या कहना,
पीड़ा ही पीड़ा,
दर्द ही दर्द।
----अशोक कुमार पचौरी