बचपन से मैं तुम्हें देखता आ रहा हूँ,
मैंने अपने दादाजी से सुना था
तुम्हारे बारे में,
वे कहते थे,
तुम मेरे बचपन से ही खड़े हो।
हे पर्वत! तुम कब से खड़े हो?
न जाने कितनी सदियाँ बीत गईं,
न जाने कितने बचपन गुज़र गए,
न जाने कितनी बार नदियाँ सूख गईं,
पर तुम एक बार नहीं झुके,
तुम अब भी वैसे ही खड़े हो।
हे पर्वत! तुम कब से खड़े हो?
आखिर तुम क्या देखना चाहते हो?
क्या तुम मानव को दु:खी देखना चाहते हो?
क्या तुम उसके रक्त बहते देखना चाहते हो?
क्या तुम अधर्म को पनपते देखना चाहते हो?
हे पर्वत! तुम कब से खड़े हो?
तुमने न जाने कितने
पौधों को बड़ा होते देखा है,
उन्हें नष्ट होते देखा है,
सब बनते बिगड़ते देखा है,
अब क्या देखना शेष है?
हे पर्वत! तुम कब से खड़े हो?
हे पर्वत! अब मैं कुछ समझने लगा हूँ,
अब मैं कुछ सोचने लगा हूँ।
अब जब भी तुम्हें देखता हूँ,
तो कुछ यादें सी आने लगती हैं,
ऐसा लगता है,
तुम रहस्य समेटे कुछ कहना चाहते हो।
हे पर्वत! अब मैं बस तुम्हें देखना चाहता हूँ,
तुम्हारी बड़ी-बड़ी चट्टानों को,
कैसे तुम्हारे अवशेष रोकते हैं
नदियों का बहाव।
मुझे अब उनमें कुछ दिखता है।
हे पर्वत! अब मैं घंटों बस तुम्हें देखता हूँ,
हे पर्वत! तुम अब याद दिलाते हो,
ऐसा लगता है,
तुम कुछ समझाना चाहते हो।
मैं जब भी तुम्हारे पास आता हूँ,
तो
तुम्हारी चट्टानों में खो सा जाता हूँ।
हे पर्वत! मैं अब समझ रहा हूँ,
तुम क्या कहना चाहते हो,
ऐसा लगता है,
तुम कुछ समझाना चाहते हो।
तुम अतीत की
हिंसा से दु:खी हो,
तुम नहीं चाहते भविष्य में
फिर ये सब देखना।
हे पर्वत! मैं अब जान गया हूँ
तुम क्यों खड़े हो इतने समय से।
तुम खड़े हो
ताकि बता सको
मनुष्य,
अतीत की दुखद घटनाओं से सीख ले,
वह अपनी बुद्धिमत्ता, उदारता और मानवता का परिचय दे।
तुम देखना चाहते हो
वर्तमान और भविष्य में
मानव की एकता,
प्रेम और खुशी,
सौहार्द और भाईचारे को।
भारत की सभ्यता, संस्कृति को
तुम गिरने नहीं देना चाहते हो,
भारत की गरिमा को।
तुम इस देश का ताज हो।
हे पर्वत! तुम धन्य हो,
तुम महान हो,
तुम पूज्य हो।
हे पर्वत! तुम ही भगवान हो,
इसलिए सदियों से
अडिग खड़े हो।
- प्रतीक झा
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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