कल
मैं एक उजली सी चुप्पी पर चला गया —
जहाँ धूप किसी अधूरी प्रार्थना की तरह
पत्तों पर थमी हुई थी।
हवा वहाँ स्त्री थी —
काजल सी कोमल,
भीतर की रेखाओं में बहती हुई,
जो कहती कुछ नहीं थी,
पर हर थकान
अपने उड़ते आँचल से धो देती थी।
एक बेल
टिक गई मेरी हथेली पर —
उसकी चुप्पी में
एक माँ की वो झुर्री थी
जिसमें नींदें, कहानियाँ और
अनकहे भय साथ पलते हैं।
एक तितली
पंख फैलाए मेरे कंधे पर उतरी,
उसके रंग
जैसे किसी अधूरे ख़त के आँसू सूखकर रह गए हों।
वो बोली नहीं,
पर मेरे कान में एक सांस आई:
“जिसे तू भूल गया,
वो हर सुबह ओस बनकर
तेरे पाँव चूमती रही।”
झील,
एक स्त्री ही थी वो भी —
नील का मौन ओढ़े,
अंतःकरण में थिरकती।
मैंने उसमें झाँका,
और देखा —
वो चेहरा जिसे मैंने बरसों पहले खो दिया था,
अब लहरों की सलवटों में
मुझे क्षमा कर रहा था।
सूरज उस शाम
डूबा नहीं था —
वो बस मेरी आत्मा के पीछे-पीछे
किसी बिछड़ी स्त्री-सा चला गया था,
जो कहे बिना विदा लेती है,
पर उसकी खुशबू
तकियों में रह जाती है।
जब मैं लौटा —
मेरे जूतों में रेत थी,
और रेत में
एक अधूरी कविता पड़ी थी —
जैसे किसी हवा ने
उसे मेरे नाम से पहले
मेरे इंतज़ार में लिख छोड़ा हो।
इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड