निखरते-निखरते वो संवरना ही भूल गया,
शहर बनते-बनते गाँव का वज़ूद ही मिट गया !!
संस्कृति-संस्कार अब पुरानी बातें हो गईं,
नज़रंदाज नज़रों से अब बाजार ही पट गया !!
जिनके बाहर दिखने से शरम आती थी कभी,
उन्हीं अंत:वस्त्रों से अब दीवाल भर गया !!
बचाने और छुपाने के ज़रूरी हैं सूत्र कई ,
बाद में ये ना कहना यार मेरा जींस फट गया !!
----वेदव्यास मिश्र
सर्वाधिकार अधीन है