न जाने कब हो गए साठ साल
जीवन के संघर्षों से जूझते जूझते
न जाने कब हो गए साठ साल
नौकरी ने भी अब दे दी विदाई
बच्चों की ज़िम्मेदारियाँ भी हो गई पूरी
घनी आबादी से निकल आज हम आ गए खुले मैदान में
मन भी चंचल है यह स्वीकारता ही नहीं
कि अब से सिर्फ़ हमें अपने लिए ही जीना है।
अचानक एक अजीब सा एकाकी पन छा गया
काम करने की आदत ने मन बेचैन कर दिया
बेचैनी में चाय लिए बालकनी में चली आई
बैठे बैठे प्रकृति की ख़ूबसूरती पर नज़र पड़ी
नीम,पीपल,गुलमोहर हसते-झूमते दिखे
फिर दृष्टि पड़ी उम पर बने सुंदर घरौंदों पर
मिलकर खाते,खेलते,लड़ते,लुक्का-छुप्पी करते पक्षी दिखे।
कुछ उड़ान भरने की कोशिश करते
तो कुछ एक पैर पर ही उड़ते दिखे
कुछ के पंख भी पूरे नहीं थे
फिर भी कोई उदास नहीं था
कोई अपने अधूरेपन से दुखी नहीं था
कुछ ही पलों में प्रकृति से एक सीख मिल गई
कि समय निकालने के लिए कोई काम नहीं करना
खुश रहने के लिए और ख़ुशी बाँटने के लिए करना
कल्पना से भी खूबसूरत प्रकृति से आज मैंने मित्रता कर ली।
वन्दना सूद(एहसास रमेश खन्ना)