बहुत मुश्किल से गुज़रती हैं, हवाएं बंद दरवाजों से..
दिलों की खिड़कियां भी, कहां खुलती हैं आवाजों से..।
हर घड़ी एक अंदेशा सा ही, घेरे रहता है मेरे मन को..
मैं दुश्मनों से रिश्ते निभा रहा हूं, अब भी लिहाजों से..।
खुलकर सीने में सांसें, भरने में भी डर सा लगता है..
दिल को भी कह रखा है, तुम जुदा नहीं रिवाज़ों से..।
अब किसी तारागर पर यकीन, हमको तो होता नहीं..
ग़रज़ ये कि मर्ज़ बढ़ता ही गया, उसके इलाजों से..।
हर दर्द का अब, जिक्र भी किया जाता नहीं "क्षितिज"
हम यहां लड़ते भी तो आख़िर, किस किस समाजों से..।