शरीर लाचार हो और बुरी तरह जीर्ण-शीर्ण हो जाये,
तब जाकर मौत मुझसे झूठी दिलासा देकर मिलने आये !!
माफ करियेगा मगर मुझे ऐसी मौत बिलकुल भी नहीं चाहिए!
अपने पैरों पर चलकर पहुँचू आखिरी मंजिल तक,
अंतिम अध्याय तक साहित्य की पिपासा हो कंठ में !!
स्वर गूँजे और प्यासे हृदय की तारों को झंकृत कर दे,
मैं गीत अपना गा सकूँ..और अंत तक मुस्कुरा सकूँ !!
मुझे ज़िन्दगी की पिच पर बस ऐसी ही पारी चाहिए !!
हाथ हमेशा ही खुले रहे दानी कर्ण की मुद्रा में,
कलम हाथों की पोरों पर सिमटी रहे अंत तक !!
जुबान लड़खड़ाये मगर घबराये नहीं तनिक भी कभी,
सच कह सकूँ बिना किसी भय के निरंतर ऐ दोस्त,
झूठे और फरेबों से मुझे कोई ऐसा रिश्ता ही नहीं चाहिए !!
एक जोवंत कवि वेदव्यास मिश्र की कलम से !!
सर्वाधिकार अधीन है