मानवता भी अब भारी लगती है लोगों को,
जैसे किसी मज़दूर के कंधे पर
बिना मजदूरी का गट्ठर रख दिया हो।
कहते हैं—
“क्यों मदद करते हो दूसरों की?
क्या उन्होंने तुम्हारे लिए आसमान से रोटी बरसाई?”
मानो प्रेम अब सौदे में तौला जाने लगा हो।
जिसने भूखे को पानी दिया,
वह मूर्ख कहलाया।
जिसने गिरे को उठाया,
वह बेकार साबित हुआ।
और जो सब पर हँसता रहा—
वही चतुर, वही सफल कहा गया।
आजकल इंसानियत
सिर्फ किताबों में सजती है,
मूर्ति बनकर मंदिरों में टिकती है,
पर सड़कों पर चलते-फिरते इंसान के भीतर—
यह सबसे भारी बोझ बन गई है।
सच पूछो तो—
रोटी की भूख झेल सकते हैं लोग,
गालियाँ सुन सकते हैं,
लेकिन किसी का दर्द बाँटना?
वह तो जैसे पहाड़ ढोने से भी कठिन है।
क्योंकि यहाँ हर कोई चाहता है—
सिर्फ अपने आँचल में सुख की गठरी,
दूसरे का दुःख—
कंधों पर काँटे जैसा चुभता है।