मत पूछो किस दर्द से जिंदा हूँ,
मैं टूटी थी — ताकि पूर्ण हो सकूँ।
छूटा हर रंग, हर यक़ीं का किनारा,
तब जाना — मैं ख़ुद से जुड़ सकूँ।
सपनों की राख में दबी एक नमी थी,
उसमें ही सींचा — कि मैं फिर उग सकूँ।
तेरा मौन मेरे लहू में उतर गया,
अब हर सिसकी में, मैं गीत बन सकूँ।
वो आँसू जो थे गुप्त वेदों जैसे,
आज उन्हीं से मैं शुद्ध हो सकूँ।
तन सिला है पीड़ाओं की चुप सिलाई से,
चाहती हूँ — अब निर्वस्त्र सत्य हो सकूँ।
मैंने बिखरने को ही पूजा था,
कि एक दिन परम में विलीन हो सकूँ।
हर टूटा अक्षर, हर अधूरी दुआ —
अब चाहती है कि मैं “शारदा” हो सकूँ।