मैं क्यों बदलूं किसी को,
जो ख़ुद से भी मिला नहीं।
जिसे हर आइना झूठ लगे,
वो सच्चाई को चला नहीं।
मैं क्यों समझाऊँ उसको,
जो सुनने से भी डरा हुआ है।
जिसकी सोच का दायरा तंग है,
और दिल कहीं मरा हुआ है।
वो कहते हैं — “तू ऐसा कर”,
“तू वैसा बोले, तू वैसा चल।”
जैसे मैं कोई खिलौना हूँ,
जिसपे उनकी मर्ज़ी का पल।
मैं क्यों किसी को रास आऊँ,
जो हर चीज़ में नुक़्स निकाले।
जो अपने डर के पर्दों में,
हर रिश्ता भी नापे, टाले।
मैं क्यों बनूँ वो, जो अच्छा लगे,
तुम्हारी सहूलियत के तौर पर?
मैं कोई पर्दा नहीं, जो टाँग दो
अपने झूठे शोर पर।
मैं हूँ जैसा — अधूरा, कड़वा,
थोड़ा सच्चा, थोड़ा साया।
जो मुझसे टकराना चाहे,
वो पहले ख़ुद से तो लड़ आया।
मैं क्यों बदलूं किसी को —
ये हक़ किसी को नहीं दिया।
जिसने भी बदला मुझे,
उसी ने मुझसे कुछ छीना, कुछ लिया।
अब जो रहना है, रहो पास,
वरना दूर का भी सुकून बहुत है।
मैं अब किसी के बदलने से पहले,
अपने घावों का खून बहुत है।
क्योंकि अब मैंने जान लिया है —
तलवार बनो, मगर किसी की म्यान मत बनो,
जो सच बोलो, तो पूरे वजूद से सुनो — मगर जान मत दो।
शारदा गुप्ता