शहर की साँसें शोर की सीटी-सायरन सी लगीं,
हर गली में भागती, थकी-थकी सी छबी।
धुआँ-दिशा-दिशा में बिखरा, कंक्रीट-कांच का जंगल,
चमक-चकमक में खो गया, आत्मा का मंगल।
इमारतें बोलीं, “हमने आसमान छुआ है”,
पर रिश्तों की जड़ें यहाँ, धूप में झुलसा हुआ है।
हर चेहरा व्यस्त, हँसी बस नकली मुस्कान है,
मशीनी चाल में लिपटी आज इंसानियत परेशान है।
न दादी की गोद है, न चौपाल की बतकही,
न पीपल की छाँव, न वो दोपहर अलसाई सही।
स्नेह-संगति की जो गंध थी, कहीं हवा में खो गई,
गाय-गगरी, गीत-गुलाब की भाषा थक कर सो गई।
ग्राम्यगौरव की वो महक, अब भी दिल को ललचाए,
जहाँ माटी-ममता मिलकर मन को माँ सा सहलाए।
गाँव की गलियाँ कहें – “आ लौट चलें उस छाँव में”,
जहाँ समरसता-सुख पलते हैं, शांति-संवाद की ठाँव में।
नई सड़कें, ऊँची उड़ानें, पर अंदर है खालीपन,
कोलाहल से भरा नगर, बस सिसकता अपनापन।
अमित श्रीवास्तव

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




