न तो वहां किनारा था... पर
एक कश्ती वहां आकर रुक सी गई
सुना सुना सा वहां तो मंज़र था
न कोई चहल पहल....केवल
लहरों की ध्वनि और
साहिल कि मौन भाषा थी....
तन्हाई थी,नीरव शांति उछल रही थी
सूरज भी काली चुनर पहने जा रहा था
रात्रि भी धीरे धीरे से हक़ जमा रही थी
कौन हूं मैं.. और....क्यों ये प्रश्न था ?
उत्तर ढूंढने में वो व्यस्त था
भीतर में युद्ध हुआ.. तूफान ने उसे लुटा था
बेबस राहें बिन मंज़िल सिसक उठी थी
आखिर किनारे होकर भी किनारा कहां था.....