वो वक़्त था, वो ख़्वाब थे..
हम बेवज़ह ही, बेताब थे..।
अंधेरों का, नामोनिशां न था..
हाथों में, हजारों अफ़्ताब थे..।
गुलशन कभी, वीरान न देखे..
खिज़ाँ में, खिले हुए ग़ुलाब थे..।
ऐसा न था कि गम न थे, मगर..
खुशियों के बहाने, बेहिसाब थे..।
हमसे अपनी, झूठी तारीफ़ न होगी..
मज़नू–ओ–आवारा के ख़िताब थे..।
पवन कुमार "क्षितिज"