ख्वाहिशें जब मेरी बढ़ती चली गई
जरूरतें संग उनके बढ़ती चली गई
जरूरतें जो कभी न पूरी कर पाया
मुसीबतें मेरी यूंही बढ़ती चली गई
दौङता, ही रहा मैं, अपनों के लिए
ये जिन्दगी दांव पे लगती चली गई
नंगे पांव रास्तों में यूंही चलता रहा
पसीने से तर जमीं, होती चली गई
ख्याल मन में था सिर्फ अपनों का
ख्वाहिशें मेरी सब मरती चली गई
खुश, हुए नहीं कभी, ये मेरे अपने
खुश करने में ये जिन्दगी गुजर गई
जिन अपनों के लिए दौङता रहा मैं
दूरियां मेरी उन से, बढ़ती चली गई
निराशा ने हमें बहुत, घेरा है यादव
तन्हाई में जिन्दगी कटती चली गई
- लेखराम यादव
( मौलिक रचना )
सर्वाधिकार अधीन है