मोहब्बत की दीवारों में दफ़न-ए-राज़ कर दो
हुई थी कभी मुलाकते उसे अब खारिज कर दो !!
कौन जाने कितने नग्मे थे उसे अनसुने कर दो
अनदेखा कर नजरों को करार-ए-राहत दे दो !!
चाहत के झरोखेमें हिसाब का एक झोला दे दो
दगा-बाजी के खेलो को नाकामी-ए-हार दे दो !!
तड़प की सीमा को किनारे का सहारा दे दो
बेहोशीमें तब्दील कर नशा-ए-आदत दे दो !!
थकसे गए, सब्र भी रोएँ, अखियनमें अंधापा दे दो
दरगुजर करे, माफ़ी चाहे, उस पे दस्तख़त कर दो !!
मोहब्बत की दीवारोंमें दफ़न-ए-राज़ कर दो
हुई थी कभी मुलाकते उसे अब खारिज कर दो !!