जाति,धर्म से ऊब गयी हूँ,
खुद में कितना डूब गयी हूँ,
अनपढ़ तो गुमराह हुए ही,
पढ़े लिखे भी उसी राह पर?
कुत्ते बिल्ली, बिल्ली बन्दर,
यह सब अब इंसान से ऊपर,
ऐसा क्या हुआ है ऐ इंसान,
चिड़ियाघर मैं खूब गयी हूँ।
रौब धौंस से काम चलाया,
कितनों को तूने कुचला है?
राह में चलते सबके होते,
एक नारी को मार गया है,
मन में क्या है?
क्या सोचा है?
क्या चलता है?
क्यों इतने लोगों में से भी,
उस निर्दयी को रोक न पाया?
नारी क्या अब भी अबला है?
पीछे से तुम वार हो करते,
नारी सुरक्षा?
नारी निकेतन?
नारी उत्थान?
नारी विकास मंत्रालय?
नारी कल्याण के ठेकेदार?
सब सो रहे हैं?
चुनाव हो रहे हैं?
तंत्र है सरकार या
षड्यंत्र है सरकार?
आखिर कौन जिम्मेदार?
उफ़ अब बहुत हुआ
यह सब में अब भूझ गयी हूँ।
-फ़िज़ा ज़हान