मैं अकेला नहीं,
मेरे पास सृजन की शक्ति है,
कल्पना का संसार है,
भला मैं अकेला क्यों,
मेरे पास असीम विस्तार है।
जिसका न आदि, न अंत,
मैं फिर अकेला कैसा?
मैं कल्पना की सृष्टि करता हूँ,
अपने अवचेतन-अचेतन का
एक-एक कोना जीने का सुखभोगी हूँ।
मैं ही पिता और मैं ही पुत्र हूँ,
मैं ही सखा, मैं ही शत्रु हूँ।
योगी निपट वैराग्य भी मुझमें,
तो कभी काम-सुख भोगी भी मैं।
मैं सृष्टि करता हूँ उस श्रृंगार की,
जो विधाता की सृष्टि से परे हो।
मैं स्वर्ग बनाता हूँ,
मैं नरक भी दिखाता हूँ।
मेरे पास हर पल कोई रहता है,
मैं अकेला कहाँ हूँ।
मेरे पास संवेदना का धरातल है,
श्रृंगार की पौध हैं,
करुणा के बादल हैं।
शांत और प्रलय हर पल साथ है,
मैं कल्पना भले करूँ,
पर वो प्रकट है,
वो सुखदाई है,
वह मेरी सृष्टि है।
मैं जीता हूँ तुमको,
मैं जीता हूँ खुदको।
मैं हर भेष रखने में सक्षम हूँ।
मैं अकेला कहाँ हूँ।
नहीं, मैं भगवान नहीं,
सौभाग्य से कवि हूँ।