अजी,
तुम्हारी निगाहें भी कमाल हैं,
हीरा देखो तो कहते हो, “ये काँच है!”
आईना देखो तो कहते हो, “ये तिरछा है!”
अब इसमें मेरा क्या कसूर,
अगर तुम्हारी सोच का ही फ्रेम टेढ़ा है!
तुम्हारी शिकायतों की लिस्ट इतनी लंबी,
कि आधार कार्ड भी शरमा जाए!
“तुम ज्यादा हंसती हो!”
“तुम ज्यादा बोलती हो!”
“तुम ज्यादा सोचती हो!”
लो भाई, अब सांस लेना भी कोटा सिस्टम में होगा?
तुम्हारी फरमाइशों का क्या कहना,
मैं बर्फ बन जाऊँ तो “बहुत ठंडी हो!”
आग बन जाऊँ तो “बड़ी जलती हो!”
हवा बनूँ तो “बहुत उड़ती हो!”
और पानी बनूँ तो “हाथ से फिसलती हो!”
अब बताओ,
क्या मिट्टी बनकर खुद को रौंदने दूँ?
तुम्हारी परख भी निराली है,
तुम गिरो तो “सीढ़ी फिसलन भरी थी!”
मैं गिरूँ तो “ध्यान से नहीं चलती!”
तुम्हारी हार हो तो “नसीब खराब था!”
मैं हारूँ तो “तुम्हारी ही गलती थी!”
अजी, कभी खुद की नज़र से खुद को देखना,
शायद तुम्हें भी कुछ कमियाँ दिख जाएँ,
क्योंकि जब दूसरों को परखने की ऐनक उतरती है,
तो अपने ही आईने में धुंध नजर आती है!
इसलिए सुन लो जनाब,
मुझमें कमियाँ कम हैं,
पर तुम्हारी सोच में ज्यादा हैं!