थे ही कुछ ऐसे, तन्हाइयों के सिलसिले..
बड़े अनमने से मिले, जब भी दिल मिले..।
हमको आज तलक भी ना ये मालूम हुआ..
बगैर बागबां के चमन में कैसे ये गुल खिले..।
उनकी बेरूखी का, ये असर हुआ हम पर..
रखे रह गए दिल में, थे जो शिकवे गिले..।
ताउम्र भटकने पर भी, ना मिली मंज़िल..
हमने तो देखे बस, ठोकरों से पांव छिले..।
मंजिलों के नामोनिशां भी नज़र नहीं आते..
फिर आख़िर कब तक रहेंगे, रवाँ ये क़ाफ़िले..।