तू मुझे सुन ले,
इससे पहले कि मैं
अपने ही मौन से रिसने लगूँ,
इससे पहले कि मेरी आँखें
तेरे इंतज़ार में बोलना भूल जाएँ।
मैं हर शब्द की पीठ पर
तेरा नाम टाँकता रहा,
हर शब्द को
तेरी चुप्पी के क़रीब ले जाता रहा।
मैंने रात की परछाइयों से पूछा —
क्या तू वहीं है
जहाँ मैं हर रोज़ टूटकर बिखरता हूँ?
या वहाँ —
जहाँ मैं कुछ भी नहीं होता,
बस एक पुकार बन जाता हूँ?
तू मुझे सुन ले,
इससे पहले कि
मैं खुद से बिछड़ जाऊँ।
इससे पहले कि
तेरी तलाश में
मैं अपना ही पता खो दूँ।
तेरे होने और न होने के बीच
मैं झूलता रहा —
एक धागा था—
जो थामे था मुझे,
अब वो भी काँपता है।
मैंने इश्क़ नहीं किया —
मैंने तो बस
तेरे मौन को जीने की कोशिश की है।
अब तू बोल मत,
बस एक आहट दे,
क्योंकि मैं अब पुकार नहीं सकता —
मैं अब बस
सुनने की अंतिम देहलीज़ पर खड़ा हूँ।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड