तेरी तलाश में
मैं कई रास्तों पर चला —
कुछ सीधे थे,
कुछ चुप थे,
कुछ इतने अकेले
कि वहाँ सिर्फ़ मेरी परछाईं थी,
और वो भी
तेरे साए में भीगकर
धीरे-धीरे मिट रही थी।
मैंने हर मोड़ पर
तुझे आवाज़ दी —
कभी तेरे नाम से,
कभी अपने मौन से,
कभी उस साँस से
जो मेरे भीतर
तेरी याद का जप बनकर
धड़कती रही।
कभी लगा —
तू इसी पल की रेखा में है,
कभी लगा —
बीते लम्हों की राख में
तेरी महक अब भी जल रही है।
मैंने तुझे
धूप की लकीरों में टटोला,
छाँव की छुअन में छुआ,
और बरसात की पहली बूँद में
ख़ुद को
तेरे नाम से भीगा पाया।
तेरी तलाश में
मैं हर आँख की कोर तक गया —
कभी किसी हँसी में
तेरी झलक देखी,
कभी किसी ख़ामोशी में
तेरी साँस सुनी।
और फिर
एक दिन
जब आईना देखा,
तो पाया —
मैं वहाँ नहीं था।
बस एक हल्की-सी रेखा थी —
जो तू था,
या शायद वो भी अब
मैं नहीं रहा।
मैंने अपने ही सवालों से
तेरी तस्वीर बनानी चाही —
पर हर उत्तर
तेरे क़दमों की आहट की तरह
मौन में ढलता चला गया।
अब बस एक धुंध है —
जिसमें तू भी खो गया है,
और मैं भी…
तेरी तलाश में
मैं
ख़ुद को
भूल आया हूँ —
या शायद…
तेरा हो-होकर,
मैं अब
तुझ में हीं खो गया हूँ।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड