मैं लघु काया, तृण सम नश्वर,
पर उसमें ही वह थमता है,
श्वासों की मूक वेदना में,
वह असीम स्वर रमता है।
रुधिर-बूँद में दीप जला कर,
वह प्रज्वलित पथ दिखलाता है,
हर नाड़ी में मन्त्र रचाकर,
मुझको ही पूजित पाता है।
यह देह नहीं — शंख सम पावन,
जिसमें गूंजे ब्रह्म ध्वनि,
यह मन नहीं — वह मंदिर है,
बसता जहाँ स्वयं दिव्य धनी।
नयन नहीं — दीपक बनकर,
सजता हर दृष्टि की थाली,
हृदय नहीं — वह तीर्थ बनकर,
करता पूजा आरती वाली।
जब मौन उतरता होंठों पर,
वह वीणा बन झनकाता है,
जब अश्रु बहे तो बूंद-बूंद,
वह अर्पण बन बरसाता है।
तन की हर थकित शिला पर,
वह विश्वास उगाता है,
जग से छिप, मन की कुटिया में,
प्रेम दीप सा जल जाता है।
मैं क्या हूँ — बस एक निवास,
उसकी स्नेहिल ज्योति का,
यह नर तन — एक पुष्पालय है,
जहाँ वास अरूप प्रभु का।
उस अनन्त का सुंदर मंदिर हूँ मैं,
जिसमें चिर-शांत प्रभु रहता है।
इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड