कभी ज़िंदगी की किताब
शुरू से खोल कर तो देखो,
हर पन्ने पर किसी ऋतु की साँस है,
किसी फूल की भाषा —
किसी आँसू का उजास है।
वो प्रभु — वो मेरा प्रीतम,
हर स्याही में बसा है कहीं।
कभी धूप बनकर खिल उठा,
कभी बादल बनकर बरस पड़ा,
कभी हवा बनकर मेरे गालों को छू गया —
और मैं सोचता रहा,
ये कौन है —
जो हर रूप में मुझसे बात करता है?
पहाड़ों की चुप्पी में उसका धैर्य था,
नदियों की लहरों में उसका हँसना,
रेत के कणों में उसकी तपस्या,
और वृक्षों की जड़ों में उसका व्रत।
कभी उसने मुझे पतझड़ में रुलाया,
कभी बसंत में हँसाया —
और मैं मूर्ख, बस पन्ने पलटता रहा,
कभी अंत की तलाश में,
कभी शीर्षक के मोह में।
पर अब लगता है —
इस किताब का कोई अंत नहीं,
हर शब्द में वही लिखा है —
वही प्रीतम, वही प्रभु, वही मैं।
कभी ज़िंदगी की किताब
शुरू से खोल कर तो देखो —
क्या-क्या नहीं किया है
उसने…
सिर्फ़ तुम्हारे लिए।
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड