मैं तो हूं ज़मीं तेरी इक, ढ़लान के जैसा
दिल में छुपे विचलित, ईमान के जैसा..।
वक्त की धारा, यहां–वहां बहा ले गई..
रहा आम आदमी की, पहचान के जैसा..।
शुष्क जीवन में बूंदे, कभी बरसी ही नहीं..
अकेला ही रहा, खाली मचान के जैसा..।
दिल को किसी ख़ास बंधन में, बांधा ही नहीं..
रहा कभी मंदिर की आरती, कभी अज़ान के जैसा..।
वो ढालने आए, जाने किस किस रूप में मुझे..
बहुत कोशिशें के बाद भी, रहा इंसान के जैसा..
पवन कुमार "क्षितिज"