इक सज्जन ने पूछा मुझसे,
अकल बड़ी कि भैंस रे बन्धु
अकल बड़ी कि भैंस ??
मैंने कहा हे दुर्लभ सज्जन,
अकल नहीं बड़ी भैंस रे बाबा
अकल नहीं बड़ी भैंस !!
उसने कहा कि कैसे सर हो,
बच्चों को क्या पढ़ाते होंगे ??
पता नहीं इतना कि होती,
बड़ी अकल नहीं भैंस रे मूरख,
बड़ी अकल नहीं भैंस !!
मैंने कहा बस दो जवाब दें,
अन्यथा कोई बात नहीं लें !!
अगर अकल होती जो बड़ी तो,
फिर हो आप परेशां क्यूँ इतने ??
चिन्तित होती भैंस यक़ीनन,
चिन्तित होती भैंस !!
दूसरी बात है हे खल ज्ञानी,
ये सवाल मुझसे क्यों पूछे ??
पूछियो जाके भैंस से याचक,
पूछियो जाके भैंस !!
भैंस को जब लेना ना देना,
अकल बड़ी कि भैंस हे सज्जन,
अकल बड़ी कि भैंस !!
फिर अपना क्यों सर खपायें,
अकल बड़ी कि भैंस !!
तब सज्जन ने बोला मुझको,
होकर गुस्से से लैस तभी वो,
होकर गुस्से से लैस !!
मुहावरा फिर क्यों बना ये,
अकल बड़ी कि भैंस ?? गुरुजी,
अकल बड़ी कि भैंस !!
मैंने कहा प्रभु दीनदयाले,
त्रिभुवन के हे राज दुलारे !!
इसका बस इतना ही मतलब
पूछ रहा परेशान वो सबसे..
अकल बड़ी कि भैंस ??
भैंस तबेले में ही अच्छी,
अकल सँवारे जीवन प्रभु जी !!
अकल से सब कुछ है मिल जाता,
भैंस मगर है दूध देती !!
मेरा बस इतना है कहना,
ना अकल बड़ी ना भैंस मानो,
ना अकल बड़ी ना भैंस !!
सर खुजलाते निकल गये वो,
फँसा हुआ कुछ पेंच पकड़के,
फँसा हुआ कुछ पेंच !!
पूछेंगे ना शायद फिर से..
अकल बड़ी कि .....????
सर्वाधिकार अधीन है